श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
प्रश्न- वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- उससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त प्रकार से आत्मस्वरूप को भली-भाँति जान लेने के कारण जिनका अज्ञानजनित अहंभाव सर्वथा नष्ट हो गया है; मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीर में अहंता-ममता का सर्वथा आभाव हो जाने के कारण उनके द्वारा होने वाले कर्मों से या उनके फल से जिसका किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहा है- उस पुरुष के मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा जो लोकसंग्रहार्थ प्रारब्धानुसार कर्म किये जाते हैं वे सब शास्त्रानुकूल और सबका हित करने वाले ही होते हैं; क्योंकि अहंता ममता, आसक्ति और स्वार्थबुद्धि का अभाव हो जाने के बाद पाप कर्मों के आचरण का कोई कारण नहीं रह जाता। अतः जैसे अग्नि, वायु और जल आदि के द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की मृत्यु हो जाये तो वे अग्नि, वायु आदि न हो तो वास्तव में उस प्राणी को मारने वाले हैं और न वे उस कर्म से बँधते ही हैं- उसी प्रकार उपर्युक्त महापुरुष लोकदृष्टि से स्वधर्मपालन करते समय यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्मों को करके उसका कर्ता नहीं बनता और उसके फल से नहीं बँधता, इसमें तो कहना ही क्या है। किन्तु क्षात्रधर्म-जैसे-किसी कारण से योग्यता प्राप्त हो जाने पर समस्त प्राणियों का संहाररूप-क्रूर कर्म करके भी उसका वह कर्ता नहीं बनता और उनके फल से भी नहीं बँधता। अर्थात लोकदृष्टि से समस्त कर्म करता हुआ भी वह उन कर्मों से सर्वथा बँधनरहित ही रहता है। अभिप्राय यह है कि जैसे भगवान् सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार आदि कार्य करते हुए भी वास्तव में उनके कर्ता नहीं हैं[1] और उन कर्मों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है[2]- उसी प्रकार संख्य-योगी का भी उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा होने वाले समस्त कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। यह बात अवश्य है कि उसका अन्तः-करण अत्यन्त शुद्ध तथा अहंता, ममता, आसक्ति और स्वार्थ बुद्धि से रहित हो जाने के कारण उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा राग-द्वेष और अज्ञानमूलक चोरी, व्यभिचार, मिथ्याभाषण, हिंसा, कपट दम्भ आदि पापकर्म नहीं होते; उसकी समस्त क्रियाएँ वर्णाश्रम और परिथिति के अनुसार शास्त्रनुकूल ही हुआ करती हैं। इसमें भी उसे किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, उसका स्वभाव ही ऐसा बन जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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