अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- आत्मा सर्वथा शुद्ध, निर्विकार और अकर्ता है- यह बात समझाने के लिये आत्मा को ‘कर्ता’ मानने वाले की निन्दा करके अब आत्मा के यथार्थ स्वरूप् को समझकर उसे अकर्ता समझने वाले की स्तुति करते हैं-
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।। 17 ।।
जिस पुरुष के अंत:करण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।। 17 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘यस्य’ पद किसका वाचक है तथा ‘में कर्ता हूँ’- इस भाव का न होना क्या है?
उत्तर- यहाँ ‘यस्य’ पद समस्त कर्मों को प्रकृति का खेल समझाने वाले संख्ययोगी का वाचक है। ऐसे पुरुष में जो देहाभिमान न रहने के कारण कर्तापन का सर्वथा आभाव हो जाना है- यानी मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा की जाने वाली समस्त क्रियाओं में ‘अमुक कर्म मेंने किया है, यह मेरा कर्तव्य है’, इस प्रकार के भाव का लेशमात्र भी न रहना है- यही ‘में कर्ता हूँ’ इस भाव का न होना है।
प्रश्न- बुद्धि का लिपायमान न होना क्या है?
उत्तर- कर्मों में और उनके फलरूप् स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई, स्वर्गसुख आदि इस लोक और परलोक के समस्त पदार्थों में ममता, आसक्ति और कामना का अभाव हो जाना; किसी भी कर्म से या उसके फल से अपना किसी प्रकार का भी सम्बन्ध न समझना तथा उन सबको स्वप्न के कर्म और भोगों की भाँति क्षणिक, नाशवान और कल्पिक समझ लेने के कारण अन्तःकरण में उनके संस्कारों का संगृहीन न होना- यही बुद्धि का लिपायमान न होना है।
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