श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय सम्बन्ध- इस प्रकार अपना सुनिश्चित मत बतलाकर अब भगवान् शास्त्रों में कहे हुए तामस, राजस और सात्त्विक इन तीन प्रकार के त्यागों में सात्त्विक त्याग ही वास्तविक त्याग है और वही कर्तव्य है; दूसरे दोनों त्याग वास्तविक त्याग नहीं हैं, अतः वे करने योग्य नहीं हैं- यह बात समझाने के लिये तथा अपने मत की शास्त्रों के साथ एकवाक्यता दिखलाने के लिये तीन श्लोकों में क्रम से तीन प्रकार के त्यागों के लक्षण बतलाते हुए पहले निकृष्ट कोटि के तामस त्याग के लक्षण बतलाते हैं- नियतस्य तु संन्यास: कर्मणे नोपपद्यते ।
प्रश्न- ‘नियतस्य’ विशेषण के सहित ‘कर्मणः’ पद किस कर्म का वाचक है और उसका स्वरूप से त्याग क्यों नहीं है? उत्तर- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये यज्ञ, दान, तप, अध्ययन-अध्यापन, उपदेश, युद्ध, प्रजापालन, पशुपालन, कृषि, व्यापार, सेवा और खान-पान आदि जो-जो कर्म शास्त्रों में अवश्यकर्तव्य बतलाये गये हैं, उसके लिये वे नियत कर्म हैं। ऐसे कर्मों का स्वरूप से त्याग करने वाला मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन न करने के कारण पाप का भागी होता है; क्योंकि इससे कर्मों की परम्परा टूट जाती है और समस्त जगत् में विप्लव हो जाता है।[1] इसलिये नियत कर्मों का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है। प्रश्न- मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग है; इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि जो कोई भी अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार शास्त्र में विधान किये हुए कर्तव्य कर्म के त्याग को भूल से मुक्ति का हेतु समझकर वैसा त्याग करता है उसका वह त्याग मोहपूर्वक होने के कारण तामस त्याग है क्योंकि मोह की उत्पति तमोगुण से बतलायी गयी है।[2] तथा तामसी मनुष्यो की अधोगति बतलायी है।[3] इसलिये उपर्युक्त त्याग ऐसा त्याग नहीं है; जिसके करने से मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। यह तो प्रत्यवाय का हेतु होने से उलटा अधोगति को ले जाने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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