श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- थोड़ा-सा साधन भी रक्षा करने वाला तो है- इसमें कोई सन्देह नहीं, पर उसमें समय का नियम नहीं है; पता नहीं, वह इस जन्म में उद्धार करे या जन्मान्तर में; क्योंकि वह थोड़ा-सा साधन क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्ण होने पर ही उद्धार करेगा। अतएव शीघ्र कल्याण चाहने वाले प्रयत्नशील मनुष्यों को तो तत्परता और उत्साह के साथ पूर्णरूप में ही समत्व प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। प्रश्न- महान् भय किसे कहते हैं और उससे रक्षा करना क्या है? उत्तर- जीवों को सबसे अधिक भय मृत्यु से होता है; अतः अनन्त काल तक पुनः-पुनः जन्मते और मरते रहना ही महान् भय है। इसी जन्म-मृत्यु रूप महान् भय को भगवान् ने आगे चलकर मृत्युसंसारसागर के नाम से कहा।[1] जैसे समुद्र में अनन्त लहरें होती हैं उसी प्रकार इस संसारसमुद्र में भी जन्म-मृत्यु की अनन्त लहरें उठती और शान्त होती रहती हैं। समुद्र की लहरें तो चाहे गिन भी ली जा सकती हों, पर जब तक परमात्मा के तत्त्व का यथार्थ ज्ञान नहीं होता तब तक कितनी बार मरना पड़ेगा? इसकी गणना कोई भी नहीं कर सकता। ऐसे इस मृत्युरूप संसारसमुद्र से पार कर देना- सदा के लिये जन्म-मृत्यु से छुड़ाकर इस प्रपंच से सर्वथा अतीत सच्चिदानन्दघन ब्रह्म से मिला देना ही महान् भय से रक्षा करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12। 7
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