श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय तदनन्तर उनचासवें श्लोक से पुनः संन्यास योग का प्रसंग आरम्भ करते हुए संन्यास से परम सिद्धि की प्राप्ति बतलाकर पचासवें में ज्ञान की परानिष्ठा के वर्णन करने की प्रतिज्ञा की है और इक्यावनवें से पचपनवें तक फल सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन किया है। फिर छप्पनवें से अट्ठावनवें तक भक्तिप्रधान कर्मयोग का महत्त्व और फल दिखलाकर अर्जुन को उसी का आचरण करने के लिये आज्ञा दी है और उसे न मानने से हानि बतायी है तथा उनसठवें और साठवें में प्रकृति की प्रबलता के कारण स्वभाविक कर्मों के त्याग में सामर्थय का अभाव बतलाकर इकसठवें और बासठवें में परमेश्वर को सबके नियन्ता, सर्वान्तर्यामी बतलाकर सब प्रकार से उनकी शरण होने के लिये आज्ञा दी है। तिरसठवें में उन विषय का उपसंहार करते हुए अर्जुन को सारी बातों का विचार करके इच्छानुसार करने के लिये कहकर चौंसठवें में पुनः समस्त गीता के साररूप सर्वगुह्यत सदस्य को सुनने के लिये आज्ञा दी है। तथा पैंसठवें और छाछठवें में अनन्यशरणागतिरूप सर्वगुह्यतम उपदेश का फलसहित वर्णन करते हुए भगवान् ने अर्जुन को अपनी शरण में आने के लिये आज्ञा देकर गीता के उपदेश का उपसंहार किया है। तदनन्तर सड़सठवें में चतुर्विध अनधिकारियों के प्रति गीता का उपदेश न देने की बात कहकर अड़सठवें और उनहत्तरवें में अधिकारियों में गीताप्रचार का, सत्तरवें में गीता के अध्ययन का और इकत्तरवें में केवल श्रद्धापूर्वक श्रवण का महात्मय बतलाया है। बहत्तरवें में भगवान् ने अर्जुन से एकाग्रता के साथ गीता सुनने की और मोहनाश होने की बात पूछी है, तिहत्तरवें में अर्जुन ने अपने मोहनाश तथा स्मृति पाकर संशयरहित हो जाने की बात कहकर भगवान् की आज्ञा का पालन करना स्वीकार किया है। उसके बाद चौहत्तरवें से सतहत्तरवें तक संजय ने श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप गीताशास्त्र के उपदेश की महिमा का बखान करके उसकी ओर भगवान् के विराट् रूप् की स्मृति से अपने बार-बार विस्मित और हर्षित होने की बात कही है और अठहत्तरवें श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन जिस पक्ष में हैं, उसकी विजय आदि निश्चित है- ऐसी घोषणा करके अध्याय का उपसंहार किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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