श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय सम्बन्ध- तीन प्रकार के तापों का लक्षण करके अब दान के तीन भेद बतलाने के लिये पहले सात्त्विक दान के लक्षण कहते हैं- दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
उत्तर- इनका प्रयोग करके भगवान् सत्त्वगुण की पूर्णता में निष्काम भाव की प्रधानता का प्रतिपादन करते हुए यह दिखलाते हैं कि वर्ण, आश्रम, अवस्था और परिस्थिति के अनुसार शास्त्रविहित दान करना-अपने स्वत्व को यथाशक्ति दूसरों के हित में लगाना मनुष्य का परमकर्तव्य है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो मनुष्यत्व से गिरता है और भगवान् के कल्याणमय आदेश का अनादर करता है। अतः जो दान केवल इस कर्तव्य-बुद्धि से ही दिया जाता है, जिसमें इस लोक और परलोक के किसी भी फल की जरा भी अपेक्षा नहीं होती-वही दान पूर्ण सात्त्विक है। प्रश्न- यहाँ ‘देश’ और ‘काल’ शब्द किस देश-काल के वाचक हैं? उत्तर- जिस देश और जिस काल में जिस वस्तु की आवश्यकता हो उस वस्तु के दान द्वारा सबको यथा योग्य सुख पहुँचाने के लिये वही योग्य देश और काल है। जैसे-जिस देश में, जिस समय दुभिक्ष या सूखा पड़ा हो, अन्न और जल का दान करने के वही देश और वही समय योग्य देश काल है- चाहे वह तीर्थस्थल या पर्वतकाल न हो, इसके अतिरिक्त साधारण अवस्था में कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, मथुरा, काशी, प्रयाग, नैमिषारण्य आदि तीर्थस्थान और ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या, संक्रान्ति, एकादशी आदि पुण्यकाल- जो दान के लिये शास्त्रों में प्रशस्त माने गये हैं- वे तो योग्य देश-काल हैं ही। इन्हीं सबके वाचक ‘देश’ और ‘काल’ शब्द हैं। प्रश्न- ‘पात्र’ शब्द किसका वाचक है? उत्तर- जिसके पास जहाँ जिस समय जिस वस्तु का अभाव हो, वह वहीं और उसी समय उस वस्तु के दान का पात्र है। जैसे-भूखे, प्यासे, नंगे, दरिद्र, रोगी, आर्त, अनाथ और भयभीत प्राणी अन्न, जल, वस्त्र, निर्वाह योग्य धन, औषध, आश्वासन, आश्रय और अभयदान के पात्र हैं। आर्त प्राणियों की पात्रता में जाति, देश और काल का कोई बन्धन नहीं है। उनकी आतुर दशा ही पात्रता की पहचान है। इनके सिवा जो श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान्, ब्राह्मण, उत्तम ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तथा सेवाव्रती लोग हैं- जिनको जिस वस्तु का दान देना शास्त्र में कर्तव्य बतलाया गया है- वे तो अपने-अपने अधिकार के अनुसार यथाशक्ति धन आदि आवश्यक वस्तुओं के दानपात्र हैं ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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