श्रीमती मूरति अङ्कित करती।
मधुर तूलिका कोमल करमें ले नाना रँग भरती॥
विविध भाँति अति मधुर मनोहर रूप बनाती जाती।
तन्मय मन, दृग-दृष्टि-अचञ्चल, उमँग न हृदय समाती॥
नव-नीरद-शुचि-नील-श्याम तनु उज्ज्वल आभा आँकी।
भाल विशाल तिलक मृग-मदके, भ्रुकुटि मनोहर बाँकी॥
सरस नयन शोभा के आकर मोहन आँजे अञ्जन।
अतिशय चपल, चोर मन-धनके, सुर-ऋषि-मुनि मन रञ्जन॥
मुख मुसकान, नासिका नीकी,कानन कुण्डल झलकैं।
केश कृष्णघन घूँघरवारे, इत-उत बिथुरीं अलकैं॥
मणिमय मुकुट मयूर-पिच्छ-युत सुन्दर सिर पै साजै।
कम्बुकण्ठ बनमाल विराजै रत्न-हार उर राजै॥
पीत वसन दमकत दामिनि-सो कटि किंकिणी अति सोहै।
निरखि-निरखि निज अंकित मूरति भामिनि निज मन मोहै॥
लई तूलिका खींचि अचानक भई सशंकित भारी।
चरण उभय आँके नहिं पियके, गहरी बात विचारी॥
भाजि जायँ जीवनधन पाछें जो चरणन के पाये।
तो फिर कहा बनैगो मेरो, यही सोच उर छाये॥
ठाढ़े निरखि रहे मनमोहन प्रीति-रीति अति पावन।
प्रकट भये, बिहँसे, पुलकित तनु भई, देखि मनभावन॥