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इस प्रकार पौगण्ड वयस्क बलराम एवं नीलसुन्दर वृद्ध गोपों का अनुमोदन पाकर आज वत्स पाल से गोपाल बन गये हैं। और अब वे असंख्य सखाओं के साथ गोचारण करते हुए जा रहे हैं वृन्दा कानन की ओर। कानन के उस भूभाग- वनस्थली के अंश पर ही अब से किसी अन्य पशुपाल का नहीं एकच्छत्र इन अनोखे गोपाल का ही साम्राज्य है। और इसीलिये आज वनभूमि उनके ध्वज, वज्र, अंकुश आदि चिह्न-समन्वित पदांकों से पूर्व की अपेक्षा भी अत्यधिक समलंकृत हो रही है-
- ततश्च पौगण्डवयःश्रितौ व्रजे बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ।
- गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर्वृन्दानं पुण्यमतीव चक्रतुः।।[1]
- जब पौगण्ड अवस्था आई। पसुपालन संमत दोउ भाई।।
- निज गोधन लै भ्रात समेता। सखन संग नृप कृपा-निकेता।।
- बन-बन धेनु चराइ प्रबीने। बृंदाबन भू पावन कीने।।
- निज पद अंकित करि जदुनंदा। महापुन्यतम छिति सुखकंदा।।
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