विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
7. काकासुर का पराभव, औत्थानिक (करवट बदलने का) उत्सव, जन्म-नक्षत्र का उत्सव, शकटासुर-उद्धार
बाल लीलाधारी गोलोक विहारी का एक अद्भुत कृत्य देख कर वे नाच उठे; क्योंकि शकट गिरते ही उन्होंने तो स्पष्ट देख लिया-
‘शकट गिर पड़ा। उसकी चोट से उत्कच चूर्ण-विर्चूण हो गया। वायु-देह छोड़ कर सर्वथा निर्मल हो गया। दिव्य देह से बाल क्रीड़ासक्त गोलोक विहारी श्री हरि को उसने प्रणाम किया। प्रणाम करके दिव्यातिदिव्य परम दिव्य चिदानन्दमय शत-अश्व संयुक्त विमान पर आरूढ़ होकर व्रजेन्द्र के निजलोक गोलोक को चला गया।’ शकटासुर (उत्कच) को ऐसी परम गति देकर भी व्रजेन्द्रनन्दन तो उस समय भी बाल्यलीला माधुरी का रस लेते हुए पैर पटक-पटक कर रो रहे थे। नन्दनन्दन को ऐसे ऐश्वर्य विहीन परम पावन लीला रस का वितरण करते देख कर देव गण विमुग्ध हो गये। उस दिन फिर व्रजेश्वरी ने अपने नीलमणि को क्षण भर के लिये भी गोद से नहीं उतारा। गोद में लिये हुए ही वे उत्सव का संचालन करती रहीं। केवल संध्या-समय आधी घड़ी के लिये रोहिणी जी की गोद में नीलमणि को लिटाकर व्रजेश की संध्याकालीन पूजा की, नारायण सेवा की व्यवस्था करने गयीं और समाधान करके शीघ्र लौट आयीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |