वे आये थे व्रजेन्द्र नन्दन के किसी और लीला-वैभव को देखने की उत्कण्ठा लेकर तथा नन्द नन्दन ने भी उनका मनोरथ पूर्ण हो जाने की स्वीकृति दे दी। तुरंत ही योगमाया का प्रभाव व्यक्त हो गया और पितामह लगे देखने असाधारण अप्राकृत चमत्कार। किंतु कणिका मात्र के दर्शन होते न होते मोहित होकर वे सुध-बुध खो बैठे। परात्पर सर्व कारण श्रीकृष्णचन्द्र ने उनकी यह अवस्था भी देख ली। प्रभु के महामहैश्वर्य दर्शन की उनकी अयोग्यता छिपनी न रह सकी। इसीलिये दृश्य-परिवर्तन अनिवार्य हो गया। कृपामय प्रभृ द्रवित हो गये और तत्क्षण ही उन्होंने योगमाया की यवनिका हटा दी-
- इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमिति के परत्राजातोऽतन्निरसनमुखब्रह्मकमितौ।
- अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति चछादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम्।।[1]
- तब श्री हरि वह माया जिती।
- अंतरध्यान करी तहँ तिती।।
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