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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
48. अघासुर के पूर्वजन्म का वृत्तान्त; अघासुर के वध पर देववर्ग के द्वारा श्रीकृष्ण का अभिनन्दन
शंखासुर तनय के रूपगर्व को चूर्ण-विचूर्ण कर देने के लिये इतना पर्याप्त था। तत्क्षण ही वह मुनि के चरणों में लोट गया। अब अग्रिम कृपाप्रसाद प्राप्त होने में विलम्ब क्यों हो? अष्टावक्र ने प्रच्छन्न अनुग्रह की सूचना दे दी ‘जिस दिन कोटिकंदर्पलावण्य श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारी उदरदरी में प्रवेश करेंगे, उस दिन तुम्हारी सर्प योनि छूट जायेगी।’
इस प्रकार शंखासुर-पुत्र के सर्प कलेवर का आरम्भ हुआ। पर आगे चलकर किसी अचिन्त्य कारणवश पुनः उसमें असुरों की मायाशक्ति जाग्रत हो उठी, यथेच्छ रूप धारण करने की क्षमता आ गयी और अघ दैत्य के रूप में वह कंस का विशिष्ट परिकर बना। अवश्य ही सर्पाभिनिवेश उसमें निरन्तर जाग्रत रहा। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं; अतीत की घटना को वह सर्वथा भूल चुका था। मुनि के शाप की, वरदान की उसे विस्मृति हो गयी थी। नाम के अनुरूप ही चेष्टाशील होकर वह अघासुर अपने पापों का घड़ा भर रहा था और अन्त में हो अपने त्राता को ही सदल बल वह मुख का ग्रास बना बैठा। फिर भी परिणाम जितना सुन्दर हुआ, उसका तो कहना ही क्या है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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