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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
7. काकासुर का पराभव, औत्थानिक (करवट बदलने का) उत्सव, जन्म-नक्षत्र का उत्सव, शकटासुर-उद्धार
काकासुर के इन शब्दों को सुन कर ही बलमदान्ध उत्कच हँस रहा था, काकासुर को अत्यन्त भीरु और निर्बल मान कर कंस पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहा था। यह उत्कच हिरण्याक्ष दैत्य का पुत्र है। चाक्षुष मन्वन्तर से भी पूर्व की बात है - एक दिन उत्कच मुनिवर लोमश के आश्रम में जा पहुँचा। तपोवन की शोभा इस असुर के लिये असह्य हो उठी। अपने प्रकाण्ड स्थूल शरीर के घर्षण से उसने आश्रम की अगणित वृक्ष-पंक्तियों को चूर्ण-विचूर्ण कर डाला। मूक वृक्षों पर यह अत्याचार कोमल हृदय मुनि कब तक देखते रहते। अन्तर्यामी की प्रेरणा से वे बोल उठे-
‘नीच! तू इस देह से रहित हो जा।’ वाक्य समाप्त होते-न-होते उत्कच की वह स्थूल काया सर्पकञ्चुकी की भाँति झड़ कर गिर पड़ी। समस्त बल विलुप्त हो गया। अब उसने मुनिवर की महिमा जानी। फिर तो चरणप्रान्त में पड़कर वह कृपा की याचना करने लगा, अनुनय-विनय करते हुए पुनः देह-दान की प्रार्थना करने लगा। त्रिगुणों से पार पहुँचे हुए ऋषि के प्रसन्न होने में देर ही क्या थी। वे तो पहले भी प्रसन्न ही थे। शापदान लीला के अन्तराल में तो छिपी थी मुनि की अद्भुत अनुकम्पा, दैत्य के उद्धार की सुन्दर योजना। मुनि ने कहा - जाओ, चाक्षुष-मन्वन्तर में तुम्हें वायु का शरीर प्राप्त होगा तथा वैवस्वत-मन्वन्तर में भगवच्चरणारविन्द का स्पर्श पा कर तुम त्रिगुण पाश से सदा के लिये मुक्त हो जाओगे। काल के प्रवाह में बहते हुए उत्कच को आज इस घटना की स्मृति सर्वथा नहीं रही है, किंतु अनन्त महिमामयी भगवान् की लीला शक्ति को सब कुछ स्मरण है। इन्हीं लीला शक्ति के नियन्त्रण में अनादि काल से सब कुछ नियमित रूप से यथा योग्य यथा समय होता आया है। एवं अनन्त काल तक होता रहेगा। इन्हीं के नियन्त्रण में कंस एवं उत्कच की मित्रता हुई थी और इन्हीं के द्वारा आज अब अवतीर्ण हुए स्वयं भगवान् व्रजेन्द्र नन्दन से मिलाने का उपक्रम भी हो रहा है, अस्तु। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गर्गसंहित गोलोकखण्ड)
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