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जिन्होंने यह-नियम का सतत साधन कर अपने चित्त को एकाग्र कर लिया है, जो निर्विकल्प समाधि में स्थित हो चुके हैं- इस प्रकार के समाहितचित योगी भी अनेक जन्मों में अपार साधनक्लेश वरण करने पर भी श्रीकृष्णचन्द्र की चरणधूलिकणिका का स्पर्श नहीं प्राप्त करते; किन्तु वे ही श्रीकृष्णचन्द्र आज इस वृन्दाकानन में, व्रजवासियों के दृष्टिपथ में सतत अवस्थित हैं। इन व्रजवासियों के अपरिसीम सौभाग्य की बात कौन बताये, कैसे बताये?
- यत्पादपांसुर्बहुजन्मकृच्छ्रतो धृतात्ममिर्योगिभिरप्यलभ्यः।
- स एव यद्द्दग्विषयः स्वयं स्थितः किं वर्ण्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम्।।[1]
- जाके पद-रज हित तप करि कै, बहुत काल जोगी दुख भरि कै।
- प्रेरित चपल चित्त कहुँ भूरि, सो वह धूरि तदपि हू दूरि।
- सो साच्छात द्दगन-पथ चहियै, कवन भाग्य व्रजजनकौ कहियै।
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