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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
46. वन भोजन लीला का उपक्रम, वयस्य गोप-बालकों के द्वारा श्रीकृष्ण का श्रृंगार तथा श्रीकृष्ण के साथ उनकी यथेच्छ क्रीड़ा
किंतु श्रीकृष्णचन्द्र ने भी हठ पकड़ लेने के अनन्तर उसे फिर छोड़ देना सीखा जो नहीं है। अनुनय-विनय करते हुए अपने कर पल्लवों से बार-बार जननी यशोदा का मुख आच्छादन करते हुए उनकी सम्मति ले लेने के लिये तो वे तुले बैठे हैं। जब मैया अपने निश्चय पर अडिग बनी नहीं हैं, तब श्रीकृष्णचन्द्र आज एक नयी युक्ति का आश्रय ग्रहण करते हैं, वे मैया को अपनी शपथ दे देते हैं। बस, जननी को मौन कर देने के लिये यह अमोघ उपाय है। अनुत्साहपूरित चित्त से ही हो, पर अब तो जननी को नीलमणि का अनुमोदन करना ही पड़ता है-
वन-भोजन की यह योजना कल वत्सचारण कर लौटते समय ही बन चुकी थी; सखामण्डल में यह स्थिर हो चुका था कि कल प्रत्येक शिशु अपने घर से भोज्यद्रव्य साथ ले आये और सब मिलकर, साथ बैठकर, परस्पर बाँटकर प्रातः कलेवा भी किसी सुरम्य वन में ही करें। प्रस्ताव श्रीकृष्णचन्द्र का ही था और फिर अविरोध समर्थन सखावर्ग का हो, इसमें तो कहना ही क्या है। इसीलिये श्रीकृष्णचन्द्र आज जननी के शत-शत अवरोध-अनुरोध पर भी अविचल रहे और जननी को ही अपना निश्चय बदलना पड़ा। जो हो, व्रजरानी सर्वप्रथम अतिशय शीघ्रता से अपने चंचल पुत्र को श्रृंगार धारण कराने लगती हैं और उधर रोहिणी मैया सुस्वादु सुमिष्ट विविध खाद्यसामग्री से छीकों को पूर्ण करने में जुट पड़ती हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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