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अस्तु, आज एक प्रहर निशा व्यतीत हो चुकी है। व्रजेश्वरी तो शयनागार में पुत्रों को लिये, उन्हें सुलाकर, स्वयं अनिद्रित रहकर चिन्ता में निमग्न हैं। उन्हें एक ही चिन्ता हो रही है-‘जिस किस प्रकार से हो, नीलमणि यदि वन जाने का हठ छोड़ दे तो कितना सुन्दर हो! क्या उपाय करें? नीलमणि को कैसे समझायें?’ और इधर व्रजेश्वर अभी भी गोपसभा में विराजित हैं, राम-श्याम की चर्चा करने में, सुनने में तन्मय हो रहे हैं, किंतु अब अतिकाल जो हो रहा है, नारायण -मन्दिर में शयन-नीराजन का समय हो चुका है। परिचारिका के द्वारा स्मरण दिलाने पर व्रजेश्वर सभा विसर्जित कर मन्दिर की ओर चल पड़ते हैं; किंतु अभी-अभी श्रीकृष्णचरित्र-चित्रण श्रवण से प्राप्त सुख की अमिट स्मृति साथ लिये जा रहे हैं। वास्तव में यह सुख है ही अप्रतिम, इसकी अन्यत्र कहीं तुलना जो नहीं।-
- जो सुख होत गोपालहि गाऐं।
- सो नहिं होत किऐं जप-तप के कोटिक तीरथ न्हाऐं।।
- दिऐं लेत नहिं चारि पदारथ, चरन-कमल चित लाऐं।
- तीनि लोक तृन सम करि लेखत, नँदनंदन उर आऐं।।
- बंसीबट, बृंदाबन, जमुना तजि बैकुंठ को जाऐ।
- सूरदास हरि कौ सुमिरन करि, बहुरि न भव चलि आऐ।।
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