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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
44. वकासुर-संहार की कथा सुनकर यशोदा के मन में चिन्ता; व्रज में सर्वत्र श्रीकृष्ण लीलागान
‘देख मैया! तुम्हें बताऊँ वह जो आया था, अपने गर्वोल्लास में फूल रहा था, पर्वत जैसा बगुला बना हुआ था, हम सबको निगल जाने के लिये उद्यत होकर आया था। मृत्यु उसके सिर पर नाच रही थी; इसीलिये आनन्द, शान्ति का लेश भी उस पक्षी में नहीं था। री मैया, उसके अत्यन्त तीक्ष्ण चोंच थी, उस चोंच के कारण वह जलती हुई आग के समान बना हुआ था। टेढ़े-टेढ़े चलकर वह आ रहा था। किंतु मैया, री बहुपुण्यवती जननि! तेरे इस कुसुम सुकुमार नीलमणि ने अपने इन्हीं हस्त कमल से उस वकासुर को देखते-ही-देखते अनायास जैसे कोई वीरण नामक तृण को बीच से चीरकर फेंक दे, वैसे ही चीरकर फेंक दिया।’ बालकों की बात सुनकर व्रजरानी के मुख की उत्फुल्लता जाती रहती है। निराशाभरी आँखों से वे पुर-पुरन्ध्रियों कोर देखती हुई कहने लगती हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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