श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
42. वत्सासुर-उद्धार
‘आह! देवी की बात तो परम सत्य होगी; उसके अनुसार मेरे प्राण अपहरण करने वाले ने जन्म तो लिया ही है और अब तो निश्चित सम्भावना हो रही है वह चाहे कोई भी हो- है वह नन्दपुत्र का छमवेश धारण किये हए, उसी में छिपा है। सपष्ट है उस नन्दपुत्र की इतनी छोटी आयु है, पर उसका बल-वीर्य कितना अपरिसीम है! देखने से प्रतीत थोड़े ही होता है वह इतना शक्तिशाली है। उसके बल पर गम्भीरता का एक आवरण पड़ा रहता है! अरे, उसी ने तो पूतना आदि दुस्सह-बलसम्पन्न प्राणियों को देखते-देखते मृत्यु की गोद में सुला दिया! उँह! उसके नाम की, तेज की बात स्मरण करते ही मेरा हृदय काँप उठता है! सम्मुख जाकर पार पाना असम्भव है; उसे तो छल से उखाड़ फेंकना होगा।’ आवेश वश कंस का शरीर काँपने लगता है। शय्या से उठकर वह हर्म्य के एक देश में घूमने लग जाता है। चिन्ता की धारा भी अविच्छिन्न चलती ही रहती है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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