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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
40. श्रीनन्दनन्दन का वत्सचारण-महोत्सव तथा अन्यान्य गोपबालकों के साथ बलराम-श्याम का वत्सचारण के लिये पहली बार वन की ओर प्रस्थान तथा वन में सबके साथ छाकें आरोगना
स्वर्णिम रवि रश्मियों के आलोक में पुरी की शोभा देखने ही योग्य है। कदली स्तम्भ, द्वार-द्वार पर स्वर्ण के मंगल घट, ध्वजा, पताका, बंदनवार, पुष्पवितान आदि से कलामर्मज्ञ गोपों ने मानो एक नवीन पल्लव-पुष्पमय पुर की रचना कर दी हो। शोभा देखकर व्रजरानी को स्वयं आश्चर्य हो रहा है कि केवल चार प्रहर में ही गोपों ने पुरी की आकृति ही बदल दी है। इससे पूर्व बृहद्वन का व्रजपुर न जाने कितनी बार सज्जित हुआ है। मैया प्रसूति गृह में थीं, नीलमणि का जन्म हुआ था, उस समय भी पुरी सजी थी। नीलमणि के अन्न प्राशन के दिन भी व्रजेश्वर ने एक चमत्कार मूर्त किया था। वर्षगाँठ के अवसर पर भी गोपों ने गोकुल सजाया था। पर आज वत्सचारण महोत्सव के समय की शोभा तो कुछ और ही है। मैया का रोम-रोम उल्लास से भर जाता है। अवश्य ही मैया को अब पुरशोभा निरीक्षण का अवकाश नहीं रहा है। मंगलगान करती हुई, विविध वेष-भूषा से सज्जित, हाथ में मंगल द्रव्यपूरित थाल लिये दल की दल गोपसुन्दरियाँ नन्दभवन की ओर आ रही हैं, और अभी उन्होंने अपने नीलमणि का श्रृंगार भी नहीं किया है। करतीं कैसे? उमंग में भरे श्रीकृष्णचन्द्र दाऊ एवं गोपशिशुओं के साथ न जाने कहाँ-से-कहाँ फुदकते फिर रहे थे। वत्स चारण के सम्बन्ध में न जाने क्या-क्या मन्त्रणा कर रहे थे। परिचारिकाएँ उन्हें बड़ी कठिनता से ढूँढ़ कर अब ले आयी हैं। अतः मैया को सर्वप्रथम नीलमणि का श्रृंगार करना है और इसीलिये वे नीलमणि का हाथ पकड़े शीघ्र ही अन्तःपुर में प्रविष्ट हो गयीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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