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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
39. नन्दनन्दन की भुवन मोहिनी वंशी ध्वनि का विश्व ब्रह्माण्ड में विस्तार तथा उसके द्वारा वृन्दावन में रस-सरिता का प्रवाहित होना; उसके कारण स्थावर-जंगमों का स्वभाव-वैपरीत्य
पुरवासियों को आन्नद का पार नहीं। राम-श्याम अपनी नित्य नूतन बाल्यभंगिमाओं का प्रकाश कर उनका आनन्द वर्द्धन करते आये हैं, अपने मधुर वचन सुना-सुनाकर प्रत्येक का मन हरण करते रहे हैं। परमानन्द में विभोर पुरवासियों को तो यह अनुसंधान ही नहीं था कि नीलमणि क्रमशः बढ़कर इस योग्य बन गये हैं। व्रजेश्वर का निर्णय सुनकर उनकी स्मृति जागी और उन्होंने अनुभव किया कि राम-श्याम को वत्सपालक बना देना सर्वथा उचित है। गोचारण, वत्सचारण तो गोपजाति का स्वधर्म है। सबसे जीवन-सर्वस्व नीलमणि से यदि व्रजेश्वर स्वधर्म का आचरण करवायें तो इसका समर्थन कौन नहीं करे, सबने एक स्वर से इस योजना का स्वागत किया। राम-श्याम के वत्सपाल बनने की तैयारी आरम्भ हुई। अस्तु मुहूर्त कभी निकले, पुरवासी तो अपने कल्पना के नेत्रों से नीलमणि को वत्सचारण करते हुए अभी से देखने लग गये-
उन्हें इस क्षण से ही दीख रहा है- वह देखो! विचित्र भूषण-वसन-विभूषित असंख्य गोपशिशु हैं, बलराम हैं, नहीं-नहीं सौन्दर्य सरिता में इतनी लहरें उठकर घनीभूत हो गयी हैं। और वहाँ देखो, इन सब के नायक नन्दनन्दन को। अहा! वहाँ तो कोटिचन्द्र एकत्र एक साथ सुधा की वर्षा कर रहे हैं!
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।11।37)
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