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जननी यशोदा से संलालित होकर श्रीकृष्णचन्द्र भी दाऊ भैया के साथ सखाओं के सहित पुनः वन की शोभा देखने निकल पड़े हैं। जिधर उनकी सलोनी दृष्टि जाती है, जिस ओर वे चरणनिक्षेप करते हैं, उधर ही प्रतीत होता है, मानो सौन्दर्य-अधिष्ठात्री के कोश में जितनी शोभा संचित है, सब की सब बिखेर दी गयी है। वन गोवर्धन, यमुनापुलिन सब ओर से जैसे सौन्दर्य-स्त्रोतस्विनी उमड़ी आ रही हो। उसमें अवगाहन कर सौन्दर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्र एवं शोभाधाम श्रीबलराम आज आनन्द-मुग्ध हो रहे हैं-
- बन बृंदाबन, गोधन, गिरिबर, जमुना-पुलिन, मनोहर तरुबर।
- रस के पुंज, कुंज नव गहबर, अमृत-समान भरे जल सरबर।।
- जदपि अलौकिक सुख के धाम, श्रीबलराम, कुँवर घनसयाम।
- रीझे तदपि देखि छबि बन की, उत्तम प्रीति लागि गइ मन की।।
- औरै सुक-सारिक, पिक-मोर, औरै अंबुज, औरै भौंर।
- रतन-सिखरगिरि गोधन-सोभा, निकसी मनहुँ नई छबि गोभा।।
- तिन बिच सुंदर रासस्थली, मनि-कंचनमय लागत भली।
- गिरि तैं झरत जु निर्झर सोहै, निर्जर-नगर अमृत-रस को है।।
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