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दधिमन्थन समाप्त हुआ। किंतु श्रीकृष्णचन्द्र के नृत्य का विराम नहीं हुआ। उसी आवेश में वे नाचते ही रहे। व्रजरानी अपने हाथ में धवल नवनीत का एक पुष्ट खण्ड उठा लेती हैं। नीलमणि को देने चलती हैं, किंतु मुड़ते ही मणिस्तम्भ में नाचते हुए श्रीकृष्णचन्द्र प्रतिबिम्ब जननी को दीख पड़ता है। वे रुक जाती हैं तथा उसी ओर देखने लगती हैं। प्रतिबिम्ब है या वास्तव में नीलमणि-जननी यह निर्णय नहीं कर पातीं; क्योंकि उनकी श्रीकृष्ण पूरित दृष्टि में मणिस्तम्भ का अस्तित्व ही जो विलीन हो गया है। एक क्षण वे असली नीलमणि की ओर देखती हैं, दूसरे क्षण प्रतिबिम्ब की ओर, दोनों में किंचिन्मात्र भी अन्तर नहीं पातीं। एक-सा नर्तन है, एक-सा सौन्दर्य। प्रेम-भ्रान्त यशोदारानी प्रतिबिम्ब को ही साक्षात नीलमणि मानने लगती हैं। पर इतने में ही पुनः कुछ दूर पर नृत्यशील असली नीलमणि उन्हें दीख जाते हैं। अब ‘नीलमणि क्या दो हैं?’-व्रजेशगेहिनी इस विचार में पड़ जाती हैं। रसस्त्रोत में डूबते- उतराते रहने के कारण पहले से ही चंचल हुआ उनका चित्त और भी चंचल हो उठता है। रस की प्रबल लहरों से बुद्धि भी ढक जाती है। व्रजरानी अन्त में इसी निश्चय पर पहुँचती हैं कि नीलमणि एक नहीं, दो हैं; तथा दोनों को समानरूप से देने के लिये वे नवनीतपिण्ड के दो भाग कर लेती हैं-
- नृत्यन्तमत्यन्तविलोकनीयं कृष्णं मणिस्तम्भगतं मृगाक्षी।
- निरीक्ष्य साक्षादिव कृष्णमग्रे द्विधा वितेने नवनीतमेकम्।।[1]
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