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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
20. मणिस्तम्भ-लीला
(प्रथम नवनीत हरण-लीला)
अब तो उसके हर्ष का पार नहीं। आनन्द में निमग्न वह मथानी की ओर चली। अवश्य ही उसकी दृष्टि मथानी को नहीं देख पा रही है, दृष्टि तो यशोदारानी के अंक में विराजित श्रीकृष्णचन्द्र के रूप से भरी है। वह कुंचित केशकलाप, ललाट का वह केसरबिन्दु, रतनारे चंचल नयन, सुढार युग्म कपोल, अरुणिम अधर, कठुलाभूषित कम्बुकण्ठ, व्याघ्रनखराजित वक्षःस्थल, सुन्दर नाभिकमल, किंकिणीभूषित कटिदेश, सुकोमल छोटे बाहुयुगल, हस्तकमल, सुन्दर मनोहर, जानु, गुल्फ, चरणतल-गोपसुन्दरी के नेत्र में तो ये भरे हैं; मथानी समा सके, इतना अवकाश नेत्रों में कहाँ। इसीलिये अनुमान से मथानी के समीप वह जा तो पहुँची, पर देख न पा सकी कि कहाँ क्या है। आते ही दधिभाण्ड से चरणों का वेगपूर्ण स्पर्श हुआ, वह दधिपात्र उलटा हो गया, दही की धारा बह चली। गोपसुन्दरी ने हाथ से टटोलकर केवल यह समझा कि मटका तिरछा हो गया है, अपनी जान में सीधा करके वह बिलोने चली। प्रेमविवश हुई ग्वालिन यह नहीं जानती कि वह रीते पात्र में ही मन्थनदण्ड चला रही है, दही तो बाहर बह गया है-
यशोदारानी ने भी तब जाना कि जब श्रीकृष्णचन्द्र स्तन्यपान से विरत होकर हँसते हुए-से उस ग्वालिन की ओर देखने लगे, जननी को उस ओद देखने के लिये इंगित करने लगे। अन्यथा जननी तो बिलोने का आदेश देकर अपने नीलमणि में ऐसी उलझ गयी थीं कि अन्य सब कुछ विस्मृत हो गया था। वे तो अपने नीलमणि को स्तन्यदान करने में तन्मय हो रही थीं। श्रीकृष्णचन्द्र ने ही उन्हें जगाया तथा जागकर जननी ने देखा-हैं! माखन तो बहता जा रहा है! जननी ने पुकारकर कहा-‘री सखी! नेक अपने को सम्हाल!’ अब कहीं जाकर व्रजसुन्दरी को मथानी की, दधिपात्र की वास्तविक अवस्था का भान हुआ। फिर तो संकोच-लज्जा में वह बह चली। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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