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जननी ने काम छोड़कर दोनों पुत्रों को एक साथ गोद में उठा लिया और वे उन्हें अन्तर्गृह में ले गयीं। दोनों के हाथों पर सुन्दर सुपक्व रोटी एवं एक-एक उज्ज्वल नवनीत पिण्ड रख दिया। फिर तो कृष्ण बलराम के आनन्द की सीमा नहीं। बलराम तो रोटी पाते ही आनन्द कोलाहल करते हुए रोहिणी के पास दौड़ गये तथा श्रीकृष्णचन्द्र वहीं जननी के सम्मुख बैठकर सुख-निमग्न से हुए माखन मण्डित रोटी की ओर देखने लगे। विकसित अरविन्द-जैसी हथेली है, उस पर रोटी रखी है, एवं रोटी पर शुभ्र शश्वर के समान उज्ज्वलवर्ण नवनीत खण्ड है- नहीं, नहीं, स्वयं गगनचन्द्र ही मानो श्रीकृष्णचन्द्र का स्पर्श पाने के लिये रवि-किरणों की चादर में अपने को छिपाये रोटी पर उस रूप में उतर आया है; किंतु यहाँ आते ही वह सोचने लगा-‘क्या यह श्रीकृष्णचन्द्र की हथेली है? नहीं, हथेली नहीं, यह तो विकसित अरविन्द है।; फिर तो चन्द्र को स्मृति हो आयी-‘अरे! अरविन्द तो मेरा सनातन शत्रु है, उसे तो मेरा मुख सुहाता नहीं; संध्या का अनुगमन करते हुए जब-जब मैं दिक्पथ में उतरा हूँ तब-तब इसे निमीलित नेत्र ही मैंने पाया; कभी इसने मेरा स्वागत नहीं किया, फिर मैं इसका मुख क्यों देखूँ।’ यह सोचकर ही चन्द्र ने नेत्रों पर ढक्कन लगा लिया; यह रोटी नहीं, मानो नवनीतरूप चन्द्र के नेत्रों पर लगा हुआ ढक्कन है-
- हरि कर राजत माखन रोटी।
- मनु वारिज ससि बैर जानि जिय गह्यौ सुधा सस धौटी।।
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