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शालग्राम देव को पुनः जल से नहलाकर पूर्ववत विभूषित कर व्रजेश उन्हें सिंहासन पर पधरा देते हैं। पधराकर श्रीकृष्णचन्द्र से कहते हैं-‘मेरे लाल! शालग्रामजी को तू माथा टेककर प्रणाम कर ले।’ श्रीकृष्णचन्द्र प्रणाम करते हैं। शंख जल लेकर व्रजेश श्रीकृष्णचन्द्र पर छिड़क देते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र धोती पकड़ कर हँसने लगते हैं। फिर तो व्रजेश सब कुछ भूलकर उन्हें हृदय से लगा लेते हैं। वास्तव में श्रीकृष्णचन्द्र चाहे कुछ भी क्यों न हों, व्रजेश की दृष्टि में तो वे अनादिकाल से उनके पुत्र हैं, अनन्तकाल तक उनके पुत्र ही रहेंगे-
- हँसत गोपाल नंद के आगै, नंद सरूप न जान्यौ।
- निर्गुन ब्रह्म सगुन लीलाधर, सोई सुत करि मान्यौ।।
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