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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
17. कण्व ब्राह्मण पर अद्भुत कृपा
ईशप्रेरित उनके कुछ शब्द कण्व के कानों में प्रवेश कर गये। वर्षो से कण्व ने ग्राम्यचर्चा सर्वथा नहीं सुनी थी। ग्रामवासियों के दर्शन तक उन्होंने इने-गिने बार ही किये थे। पर आज ग्वालिनों के कण्ठ से निकली हुई वह स्फुट ध्वनि कर्णरन्ध्रों में बरबस चली गयी-नहीं-नहीं, प्राणों के अन्तस्तल में जाकर गूँजने लगी। कण्व अपने को संवरण न कर सके। द्रुतगति से चलकर गोप-सुन्दरियों के समीप जा पहुँचे और जाकर पूछ ही बैठे-‘माताओ! किसके पुत्र की बात कर रही हो? उत्तर में अश्रुपूरित कण्ठ से गोपसुन्दरियों ने-
-यहाँ से आरम्भ कर आज तक श्रीकृष्णचनद्र की विविध सुमधुर लीलाओं को गा-गाकर सुना दिया। सुनते-सुनते ब्राह्मण सामधिस्त-से हो गये। जब ग्वालिनें चली गयीं, तब कहीं उन्हें बाह्यज्ञान हुआ। पर वे अब और सब कुछ भूल-से गये थे। नन्दप्रांगण में स्थित ग्वालिनी-वर्णित बालक की मूर्ति ही नेत्रों के सामने नाच नही थी। कंद-मूल की झोली को, चयन किये हुए पुष्पसमूह को वहीं एक तमाल के नीचे रखकर यन्त्र परिचालित-से वे व्रजपुर की ओर चल पड़े। व्रजपुर की सीमा में प्रवेश करते ही कण्व की दृष्टि बदल गयी। वह आम्रपंक्ति, वह कदम्बश्रेणी-कण्व को प्रतीत हो रहा है, यह तो दिव्य कल्पतरु का वन है, उस पर्वतीय निर्झर से तो अमृत झर रहा है, ये कूप-तड़ाग तो परम दिव्य सुधा से पूर्ण हैं; यह भूमि नहीं, यह तो चिन्तामणि का एक विशाल आस्तरण है। सामने गोपसुन्दरियाँ हैं- नहीं-नहीं, यह तो अगणित महालक्ष्मियों का अवतरण हुआ है; ये देखो-इनकी वाणी संगीतमयी है, इनका गमन नृत्यमय है; आकाश चिन्मय, आकाश का सूर्य चिदानन्दमय, शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध-ओह! व्रजपुर का तो सभी कुछ सच्चिदानन्दमय है! इस प्रकार कण्व एक अनिर्वचनीय अनुभूति करते हुए, विस्फारित नेत्रों से गगनचुम्बी मणिसद्मों की ओर निहारते हुए धीरे-धीरे चलकर राजसभा के सम्मुख खड़े हो गये। प्रहरी ने कण्व को देखते ही पहचान लिया। वह चरणों में गिरकर बोला-‘देख! व्रजेश्वर इस समय अन्तःपुर में हैं, आप वहीं पधारें।’ कण्व अन्तःपुर में प्रवेश कर गये। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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