विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
79. व्रज में पावस की शोभा का वर्णन
इस बार यह व्रजेन्द्र नन्दन के अष्टम वर्ष की वर्षगाँठ देखने आयी है। व्रजपुर के आकाश में वितान तान कर प्रतीक्षा कर रही है। अगणित मनोरथ हैं इसके तथा उन-उन भावों से भावित हो कर वृन्दाकानन को, नन्द राय के व्रज मण्डल को इसने विभूषित किया है। अब कवियों! तत्त्वदर्शियों! अपने श्रीकृष्णरसभावित मन के निरावित स्रोत में प्रति चित्रित उन भावों का जो जितना अंश लेना चाहो, ले लो और फिर उसको किंचिन्मात्र वाणी से व्यक्त कर दो। उसकी प्रतिच्छाया के दर्शन से प्रपञ्च के प्राणियों का अशेष मंगल होगा; क्योंकि तुम्हारा वर्णन आश्रित है उस पावस पर, जो व्रजेश-तनय श्रीकृष्णचन्द्र की लीला का उपकरण है; तुम्हारी आँखें डूबी हैं नीलसुन्दर के चारु चरण-सरोरुह में और उसी मकरन्द से सुवासित होकर ही उपमाएँ व्यक्त होंगी तुम्हारी वाणी के पथ से। अस्तु, वह देखो व्रजपुर का दिव्यातिदिव्य चिन्मय धाम और उसके आकाश में छायी हुई निबिड नील अम्बुद राशि! रह-रह कर विद्युत कौंध उठती है और फिर मेघ-गर्जन का तुमुल नाद परिव्याप्त हो जाता है। सूर्य, चन्द्र एवं तारक-समूह सर्वथा आवृत हो चुके हैं, गगन तल से मानो अन्तर्हित हो गये हों- ठीक उस प्रकार जैसे स्वप्रकाश परमानन्द ब्रह्म-स्वरूप जीव प्रकृति के त्रिगुण सत्त्व, रज एवं तम से आवृत हो जाता है। बस, तडित-लहरी-सी उसमें सत्त्व की जागृति रहती है, रजोमय नाद का बोल-बाला होता है और तम का घन आवरण तो सतत उस पर रहता है ही। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |