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भय तो कुछ रह नहीं गया था अब। अत एव उसी विशाल वट के नीचे शिशुओं की गोष्ठी आरम्भ हुई, विचार होने लगा- ‘आखिर यह अत्यन्त आश्चर्यमयी असम्भव घटना संघटित हुई तो कैसे! अधिक से अधिक मन्त्र-तन्त्र के प्रभाव से दावानल की ज्वाला हमें जला नहीं पाती, हम सब उसके बीच रहकर ही उससे बच जाते; किंतु बिना प्रयास एक क्षण में ही इन असंख्य धेनु समूहों के साथ इतनी दूर कैसे आ गये? सोचो, पहले तो वह वनवह्नि-जैसी भयानक थी, उसे देखते मान ही लेना पड़ता है कि साधारण मन्त्रवेत्ता की शक्ति के बाहर की बात है उसे शान्त कर देना और हम सबों को बचा लाना। अब भला, तन्त्र विज्ञान का कितना बड़ा अनुभवी है यह हमारा कन्नू! क्योंकि जो कुछ किया है वह तो सब का सब हमारे कन्हैया ने ही किया है। उसी की अचिन्त्य महाशक्ति के प्रभाव से ही तो हम सबकी रक्षा हुई है और फिर ऐसी रक्षा के अनजान में ही हम सभी विपत्ति के उस स्थान तक से हटकर-उससे बहुत दूर अपनी पूर्व-परिचित सुन्दर समतल भयशून्य भूमि पर आ पहुँचे!’- इस प्रकार न जाने कितने संकल्प-विकल्प उन शिशुओं के मन में उदय हुए तथा अन्त में सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ ‘देखा, यह जो हम लोगों का कन्नू है, वह कोई देवता है।’
- कृष्णस्य योगवीर्य तद् योगमायानुभावितम्।
- दावाग्नेरात्मन: क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम्॥[1]
- यह जु नंद कौ नंदन आहि।
- भिया! मनुज जिनि जानहु याहि।।
- देवन में जु देव बड़ कोई।
- हम जानहिं कि आहि यह सोई।।
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