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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
76. प्रलम्बासुर-उद्धार
अन्तरिक्ष चारियों ने यह भी स्पष्ट देखा प्रलम्ब के शरीर से एक सुदीर्घ ज्योति निकली और रोहिणी नन्दन के अंगों में विलीन हो गयी-
और जिस समय बलराम को नीलसुन्दर एवं गोप शिशुओं से मिलन हुआ- ओह! कोई कैसे भर दे वाणी के क्षुद्रपात्र में उस अपरिसीम आनन्दसिन्धु में उठी हुई असंख्य ऊर्मियों को!
पारिजातग्रथित मालाओं से एवं राशि-राशि अन्य स्वर्गीय कुसुमों से वन की धरा आच्छादित हो चुकी है। फिर भी सुरवृन्दों के द्वारा रोहिणी नन्दन के अभिषेक का, स्तवन का विराम कहाँ हो रहा है!-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगर्गसंहिता)
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