श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
11. तृणावर्त-उद्धार
ऋषि की अवज्ञा का परिणाम सहस्राक्ष के सामने था; वे अतिशय विकल हो रहे थे। पर हृदय में एक परम आश्वासन की अनुभूति भी हो रही थी। ऋषि का यह शाप ही वरदान बनेगा, मेरा वह असुर-शरीर ही योगीन्द्र-मुनीन्द्रदुर्लभ श्रीकृष्णपंकज का संस्पर्शलाभ करेगा; ओह! मैं तो कृतार्थ हो जाऊँगा। इस भावना से भावित हुए सहस्राक्ष हरिपादाम्भोज का स्मरण कर जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर गये थे-
उन्हीं सहस्राक्ष तृणावर्त दैत्य के रूप में परिणत होकर जन्म धारण करते भी लीलामहाशक्ति ने देखा है। तब से लाख वर्ष बीत गये हैं, किंतु तृणावर्त की प्रतिक्षण में होने वाली सूक्ष्मतम चेष्टा तक लीलाशक्ति के हृत्पट पर आज भी ज्यों-की-त्यों अंकित है। वे तो तृणावर्त को निरन्तर देखती आ रही हैं। फिर आज कैसे न देखतीं? अस्तु। जब व्रजरानी का पुत्र को समझाने का सारा प्रयास विफल हो गया, श्रीकृष्णचन्द्र ने उड़ने की हठ न छोड़ी, तब जननी भी एक नवीन युक्ति का आश्रय लेती हैं। वे बोलीं-‘मेरे हृदयधन! अच्छा ले, तू पहले उड़ना सीख तो ले।’ यह कहकर उन्होंने नीलमणि को अपने दोनों हाथों के सहारे ऊपर आकाश की ओर उठाया। पर यह क्या? सहसा ऐसे कैसे हो गया? नीलमणि के श्याम शरीर में इतना भार कहाँ से आ गया? ओह! जननी की भुजाएँ नमित हो गयीं। किसी प्रकार वे अपने वक्षःस्थल पर पुत्र को ले आयीं। पर वक्षःस्थल भी भार से दब गया। मैया खड़ी न रह सकीं, बोझ से दबकर बैठ गयीं। किंतु अब तो बैठकर भी पुत्र को अपनी गोद में थामने की सामर्थ्य जननी में नहीं है! जननी धीरे से नीलमणि को भूमि पर बैठा देती हैं, नहीं, नहीं, श्रीकृष्णचन्द्र का नव घनश्याम कलेवर अत्यन्त गुरु भार के कारण व्रजरानी के हाथ एवं घुटनों के लिये सर्वथा असह्य बनकर स्वयं मणिमय धरातल पर खिसक पड़ता है। इस आकस्मिक परिवर्तन से व्रजमहिषी के मन में किसी आगन्तुक अनिष्ट की सम्भावना होने लगती है। वे अतिशय भयभीत होकर जगत् के अन्तर्यामी नारायण देव का ध्यान करने लगती हैं-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज