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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
74. बलराम-श्रीकृष्ण का किशोरावस्था में प्रवेश
फिर तो कैशोर ने अपने ढंग से सब कुछ पूरा का पूरा सजाया नीलसुन्दर के मुख सरोज का सर्वांश विकसित हो उठा, एक अभिनव कान्ति प्रसरित होने लगी। दृगों में मनोहर दीर्घता दीख पड़ी और वे नयन-सरोरुह अरुण प्रभा से रञ्जित होने लगे। वक्षःस्थल ऊँचा हुआ, सुन्दर विस्तार भी हो गया उसका। मध्य देश में परम रमणीय कृशता परिलक्षित होने लगी। इस प्रकार एक अद्भुत अनिर्वचनीय सौन्दर्य सिन्धु का निर्माण कर दिया कैशोर ने। तथा जैसे ही उसमें पहली ऊर्मि उठी कि समस्त व्रजपुर प्लावित हो उठा, स्थावर-जंगम सबके नेत्र भर गये इस सौन्दर्यपूर से, सबकी आँखें आकर्षित होकर बरबस बह चलीं उस प्रवाह में और जा कर आखिर डूब ही गयीं नीलसुन्दर के श्रीअंग के समीप उठती हुई उन श्यामल लहरों में!-
कदाचित किसी की आँखें कुछ क्षणों के लिये बाहर उतराने लगतीं तो उस समय उसके प्राण इस प्रकार झंकार करने लगते- ‘अहा! कैसी शोभा है नीलसुन्दर की! मानो वसन्त के दिन हों, नव-तमाल-तरु की शाखाओं में, शाखा की प्रत्येक ग्रन्थि में विविध नवांकुर श्रेणी फूट पड़ी हो; इन नवांकुरों से श्याम-तमाल का सौन्दर्य प्रस्फुटित हो रहा हो। पर यह शोभा भी सर्वथा तिरस्कृत जो हो रही है नीलसुन्दर के रोम-रोम से प्रस्फुटित हुए सौन्दर्य-स्त्रोत की तुलना में!’
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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