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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
70. कालिय द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति और श्रीकृष्ण की उसे ह्नद छोड़कर समुद्र में चले जाने की आज्ञा तथा गरुड़ के भय से मुक्ति दान; कालिय एवं उसकी पत्नियों द्वारा श्रीकृष्ण की अर्चना तथा उनसे विदा लेकर रमणक-द्वीप के लिये प्रस्तान
श्रीकृष्णचन्द्र की यह परम मधुर कल्याणमयी वाणी कालिय के कर्ण रन्ध्रों में भी प्रविष्ट हो रही है; किंतु अब तो उसका भी हृदय भर आया है। अतीत के अगणित वर्षों की घटनाएँ, अपने बहिर्मुख जीवन का प्रवाह और अभी-अभी व्रजेन्द्र नन्दन के द्वारा पाये हुए अनिर्वचनीय सौभाग्य-दान की निराविल सुखानुभूति- दोनों के अत्यन्त जीवंत प्रतिचित्र हृत्पट पर झलमल कर रहे हैं पश्चात्ताप की दुस्सह व्यथा, परमानन्द का अपरिसीम उद्वेलन दोनों क्रमशः, नहीं-नहीं, एक साथ ही उसके प्राणों को अभिभूत कर रहे हैं वह सोच रहा है- ‘इस महामलि सर्पदेह में अध्यस्त रह कर, इससे सम्बद्ध समस्त वस्तुओं में अपने-पराये की भावना से सतत भावित रह कर न जाने कहाँ-से-कहाँ बहता रहा हूँ, अपनी इस तपोमयी जीवन-धारा में बहते हुए न जाने कितनी कोटि-कोटि नृशंस कर्म राशियों का निर्माण मैंने किया है। फिर भी इन सामने अवस्थित करुणा वरुणालय प्रभु व्रजराज नन्दन ने मुझे अपने चरण सरोजों की शीतल शंतम छाया का दान किया ही! प्राण धारण सफल हो गया मेरा। पर हाय! यह हुआ उस अन्तिम मुहूर्त जबकि मैं, बस, तुरंत इस आगे के कुछ क्षणों में ही स्वेच्छा या अनिच्छा से- मृत्यु को वरण करने जा रहा हूँ, ह्नद की सीमा के उस पार कालिय नाम से अभिहित इस शरीर का सदा के लिये अवसान होने जा रहा हैं पक्षिराज गरुड़ प्रतीक्षा ही कर रहे होंगे मेरी। और यद्यपि इस विनश्वर तमोमय सर्प-शरीर को तो सचमुच अब चिन्ता ही क्या है, मेरी एक मात्र निधि, इन मेरे आराध्य देव श्रीकृष्णचन्द्र को पा लेने के अनन्तर अब क्या भय है; किंतु प्राणों की यह नवीन अभिलाषा तो हाय! अपूर्ण ही रह गयी। मेरा कर्म विपाक मुझे शरीर तो दे सकता है, पर ओह! श्रीकृष्ण चरण सरोरुह से स्पृष्ट हुए शरीर की उपलब्धि मुझे कहाँ होगी? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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