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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
10. व्रज में क्रमशः छहों ऋतुओं का आगमन और श्रीकृष्ण की वर्षगाँठ
अब शिरीष-पुष्पों का मुकुट धारण किये एवं मल्लिका-कुसुमों की माला पहने ग्रीष्म आया। परंतु फिर भी उसके अंग जल रहे थे। न जाने कितने काल से ग्रीष्म जलता ही या है। इसीलिये उसकी जलन दूसरों पर भी प्रभाव डालती है। वह जहाँ जाता है, वहीं ताप का विस्तार करता है। किंतु इस बार ग्रीष्म ने आश्चर्य में भरकर यह देखा कि व्रज उसके प्रभाव से झुलसा नहीं। उसने अनुभव किया-व्रजपुर की लता-वल्लरियों ने आज जब मैं आया, तब मेरा स्वागत तो किया, मेरा अधिकार भी माना, पर वे म्लान नहीं हुई; सरोवरों ने मेरा उचित आतिथ्य किया, पर वे शुष्क नहीं हुए। वह सोचने लगा-ऐसी विलक्षण सरसता व्रज में कहाँ से आयी? व्रजपुर के सिवा तो अन्य सभी मेरे अधिकृत देश जल रहे हैं; मथुरेष कंस के मधुवन पर भी इस समय मेरा ही अबाध अधिकार है-वह भी जल रहा है; फिर नन्दव्रज में ही यह परिवर्तन क्यों है? यह सोचते हुए ही दैवक्रम से वह नन्दभवन में जा पहुँचा तथा वहाँ एक विचित्र दृश्य देखा-पाटलपुष्पनिर्मित अवतंस धारण किये कुछ व्रजसुन्दरियाँ मणि स्तम्भों की ओट में छिपकर खड़ी हैं, शान्त रहकर श्रीकृष्ण की चेष्टा देख रही हैं; श्रीकृष्ण घुटुरूँ चलकर द्वार के पास आ गये हैं, पर आगे नहीं जा पा रहे हैं; क्योंकि पद्मरागमणिनिर्मित द्वार की चौखट धरातल से एक हाथ ऊँची है, उनका पथ रोके खड़ी है। शिशु श्रीकृष्ण हाथों से चेष्टा करते हैं कि चौखट पर चढ़ जाऊँ, चढ़कर उसे पार कर जाऊँ, पर चढ़ नहीं पाते; सारा बल लगाकर चौखट लाँघना चाहते हैं, पर लाँघ सकते नहीं, हारकर वहीं हाथों को नचा-नचाकर खेलने लग जाते हैं। ओह! कैसी मुनिमनमोहन लीला है! जिन्होंने एक दिन दान में प्राप्त हुई तीन पद भूमि नापने जाकर दो पद से ही सारी त्रिलोकी की नाप ली थी, तीसरे पद के लिये भूमि नहीं बची थी- इतने बढ़े जिनके पद हैं, वे ही आज का शिशु का साज साजे द्वार लंक्षन में असमर्थ दीख पड़ रहे हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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