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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
69. नाग पत्नियों का भी अपने शिशुओं को लेकर श्रीकृष्ण की शरण में उपस्थित होना, स्तुति एवं प्रणाम करना और पति के जीवन की भिक्षा माँगना; श्रीकृष्ण का करुणापूर्वक कालिय के फनों से नीचे उतर आना
इस प्रकार कालिय पर किये गये शासन का अनुमोदन एवं श्रीकृष्ण चरण सरोजों में शत-सहस्र प्रणाम निवेदन करने के अनन्तर अब अन्त में नाग वधुएँ प्राणियों की परतन्त्रता का संकेत करती हुई कालिय को क्षमा करने के लिये, उसे प्राणदान देने के लिये व्रजेन्द्र नन्दन से प्रार्थना करती हैं- ‘सर्वेश्वर! तुम अनीह-इच्छा रहित हो। तथापि अनादि कालशक्ति को स्वीकार करते हो! और फिर हे अमोघ लीलाविहारिन! सत्य संकल्प! इपने ईक्षण मात्र से संस्कार रूप में विद्यमान प्राणियों के स्वभाव को जाग्रत कर देते हो! जाग्रत करते हुए इस परिदृश्य मान विश्व का सत्त्वादि त्रिगुणों के द्वारा सृजन, पालन एवं प्रलय करते हो! ‘भगवन! त्रिलोकी की तीनों योनियाँ- सत्त्व प्रधान शान्त, रजोगुण प्रधान अशान्त, तमःप्रधान मूढ़, तुम विश्व निर्माता की ही लीला मूर्तियाँ तो हैं! तथापि संतजनों का, धर्म का परिपालन करने की इच्छा से तुम अवतरित हुए हो। इसीलिये उनकी रक्षा के लिये आविर्भूत हुए तुम लीलामय को इस समय सत्त्व प्रधान शान्तजन ही प्रिय हैं, अन्य नहीं देव! ‘शान्तात्मन! स्वामी के लिये, पालक के लिये आखिर एक बार तो अपनी प्रजा, संतान के द्वारा किया हुआ अपराध क्षमा के योग्य है ही। इसीलिये, स्वामिन! क्षमा कर दो इस मूढ़ के द्वारा किये हुए अपराध को भी। तुम्हें यह पहचानता नहीं, नाथ! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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