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कराल आँखे प्रज्वलित विषमय भाण्ड की भाँति स्तब्ध बन गयीं। मुख जलते हुए अंगारों का आकार बन गया और इस प्रकार मानो तम की सम्पूर्ण परिणति उसमें एक साथ एक समय अभिव्यक्त हो गयी तो इतना भयंकर बनकर, एक दृष्टि से श्रीकृष्णचन्द्र की ओर देखते हुए, स्थिर भाव से वह स्थित हो गया अगले दाव की प्रतीक्षा में!
- तत्प्रथ्यमानवपुशा व्यथितात्मभोगस्त्यक्तोन्नमय्य कुपित: स्वफणान् भुजंग:।
- तस्थौ श्वसञ्छ्वसनरंध्रविषाम्बरीषस्तब्धेक्षणोल्मुकमुखो हरिमीक्षमाण:॥[1]
- बढ़यौ कृष्न तन अति बल-जोरू।
- तज्यौ सर्प बंधन अति घोरू।।
- फन उठाइ प्रभु ओर निहारू।
- रोष मानि रह खरौ गँवारू।।
- नासा बिबर स्वास अति घोरा।
- विष भाजन जनु पाक कठोरा।।
- नैन कराल अनल जनु बरई।
- मुख उलमूक रासि जनु जरई।।
- एहि बिधि ठाढौ अहि लसत काली काल कराल।
- तरु तमाल साखा मनहुँ लसत फननि कौ जाल।।
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