श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
67. श्रीकृष्ण को कालिय के द्वारा वेष्टित एवं निश्चेष्ट देखकर मैया और बाबा का तथा अन्य सबका भी ह्नद में प्रवेश करने जाना और बलराम जी का उन्हें ऐसा करने से रोकना और समझाना; श्रीकृष्ण का सबको व्याकुल देखकर करुणावश अपने शरीर को बढ़ा लेना और कालिय का उन्हें बाध्य हो कर छोड़ देना
और वे अनन्तैश्वर्य निकेतन स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र? क्या वे नहीं देख पा रहे हैं अपने निजजनों की यह परम दयनीय दशा? नहीं सुन पा रहे हैं वे उनका वह अत्यन्त करुण क्रन्दन? नहीं-नहीं, वे करुणा वरुणालय सब कुछ देख-सुन रहे हैं! यह तो व्रजजन के हृत्सिन्धु की, उनके भाव सागर की मन्थन लीला है। त्रिताप से नित्य जलते हुए असंख्य प्राणियों के लिये महौषधि रूप बनकर इस सागर की कुछ बूँदें, मन्थन जात अमृत की कुछ कणिकाएँ प्रपञ्च के तट पर बिखर जायँगी। अनन्त काल तक जो भी सौभाग्यशाली प्राणी इनके सम्पर्क में आ सकेंगे, उनकी त्रिताप-ज्वाला सदा के लिये प्रशमित होगी। इसी अभि संधि से-साथ ही अपने स्वजनों के रस पोषण, रस संवर्धन के उद्देश्य से व्रजेन्द्र नन्दन कालिय बन्धन में विश्राम-सा करने लगे थे। पर यह तो हो चुका। अब आगे क्षणभर का भी विलम्ब, उर बन्धन का यह विश्राम व्रजपुर वासियों के जीवन तन्तु को छिन्न किये बिना न रहेगा, यह भी परम करुणामय प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं। या तो ये सब विषमय ह्नद में अपने शरीर होम कर उनमें आ मिलें, या विरह की ज्वाला उनके कलेवर को भस्म कर दे और फिर निरावरण वे अपने प्राणाधार को प्राप्त कर लें- जैसे हो, ये सभी उनसे मिलकर ही रहेंगे, उनका सांनिध्य पा लेने के अतिरिक्त उनके लिये अन्य गति नहीं, यह ‘सर्वज्ञ सर्ववित्’ प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र से छिपा नहीं है। साथ ही जिनका नित्य स्नेहार्द्र हृदय अपने स्वजनों की तनिक-सी आर्ति सहने में भी सर्वथा असमर्थ बन जाता ह। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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