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- कृष्न-मुखारविंद दृग दीने।
- रोवहिं विह्वल बदन मलीने।।
- बारिज-लोचन मोचहिं बारी।
- संतत हिय जेहि वसत मुरारी।।
- कहि कहि ललित गोपाल गुन, ब्रज कीने जे ख्याल।
- भूलीं तन सुधि मनहुँ सब मु सकल ब्रजबाल।।
वे गोपगण भी श्रीबलभद्र के द्वारा रोक अवश्य लिये गये, कालिय ह्नद के विषमय जल का स्पर्श का जल मरने से उनकी रक्षा हो गयी; किंतु उनके अन्तस्तल की ज्वाला ह्नद की प्राणहारी ज्वाल से कहीं अधिक विषम है। उसकी कराल लपटों में उनका शरीर, मन, प्राण सब कुछ झुलसता जा रहा है। क्या गोप और क्या गोपी सभी का जीवनदीप मानो अब कुछ ही क्षणों में निर्वापित होने जा रहा है-
- नर-नारि मोह-पीड़ा अधीन।
- जल तें बिहाति ज्यौं बिकल मीन।।
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