श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
67. श्रीकृष्ण को कालिय के द्वारा वेष्टित एवं निश्चेष्ट देखकर मैया और बाबा का तथा अन्य सबका भी ह्नद में प्रवेश करने जाना और बलराम जी का उन्हें ऐसा करने से रोकना और समझाना; श्रीकृष्ण का सबको व्याकुल देखकर करुणावश अपने शरीर को बढ़ा लेना और कालिय का उन्हें बाध्य हो कर छोड़ देना
‘व्रजपुर वासियों! मेरे इन कनिष्ठ भ्राता के शौर्य की महिमा को आप लोग निश्चय ही नहीं जानते। जब किसी के अहंकार को चूर्ण-विचूर्ण कर देने के लिये इसमें भी एक महान अहंकार जाग्रत हो उठता है और फिर अहंकार जनित जिस शौर्य की इसमें अभिव्यक्ति होती है, उसकी उस आनन्दवर्द्धिनी महिमा से आप सब सर्वथा परिचित नहीं हैं। केवल मात्र मैं जानता हूँ। औरों की तो बात हो क्या, ऐसे देव श्रेष्ठ भी कौन हैं, जो मेरे इस भाई की उस महिमा के लव मात्र को भी ज्ञान प्राप्त कर सके हों?’
‘अहो! निश्चय समझो, अभी-अभी इस पुरुष कुञ्जर मेरे भाई श्रीकृष्ण के द्वारा नाग प्रमुख कालिय का पराभव, बस, होने ही जा रहा है!’
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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