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गौ, गोवत्स आदि की हल्दी-तेल से रँगकर, गैरिक आदि धातुओं से चित्रित कर, मयूर पिण्छ एवं पुष्प रचित माला पहनाकर, सुवर्ण श्रृंखला से मण्डित करके तथा स्वयं बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण, अँगरखे, पगडी से विभूषित होकर हाथों में, काँवरों में, सिर पर घी, दही, नवनीत, आमिक्षा से पूर्ण घड़े लिये व्रज के समस्त गोप नन्द भवन की ओर आ रहे हैं। उनके पीछे दौड़ती हुई गोपांगनाएँ आ रही हैं-
- सुनि धाईं सब व्रज-नारि सहज सिंगार किऐं।
- तन पहिरें नौतन चीर, काजर नैन दिऐं।।
- कसि कंचुकि, तिलक लिलार, सोभित हार हिऐं।
- कर कंकन, कंचन-थार मंगल-साज लिऐं।।
- वे अपने-अपने मेल निकसीं भाँति भली।
- मानों लाल मुनिन की पाँति पिंजरन चूर चली।।
- वे गावैं मंगलगीत मिलि दस-पाँच अलीं।
- मानों भोर भयौ रबि देखि फूलीं कमलकलीं।।
- उर अंचल उड़त न जान्यौ सारी सुरँग सुहीं।
- मुख माँडयौ रोरी-रंग सेंदुर माँग छुहीं।।
- स्त्रम श्रवनन तरल तरौना, बेनी सिथिल गुहीं।
- सिर बरखत कुसुम सुदेस मानों मेघ-फुहीं।।
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