श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
66. अपशकुन देखकर नन्द-यशोदा एवं बलराम जी का तथा अन्य व्रजवासियों का नन्द नन्दन के लिये चिन्तित हो एक साथ दौड़ पड़ना और श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के सहारे कालीदह पर जा पहुँचना और वहाँ का हृदय विदारक दृश्य देखकर मूर्च्छित हो गिर पड़ना
‘हाय! मेरे लाल! तू तो मुझे अतिशय प्यार करता था रे! तू सहसा ऐसा दुस्साहस कैसे कर बैठा तू मुझसे पहले कैसे चला गया?’ फिर एक क्षण में ही लुढ़क पड़े वे सब-के-सब गोप-
‘अहो! व्रजवासी तुझे कितने प्रिय थे। किंतु वत्स नीलमणि! तेरे वे प्रिय व्रजजन मृत्यु के मुख में, यह लो, चल पड़े! तू बता दे मेरे लाल! अब तेरा संग कहाँ मिलेगा? आह! अरे! हाय रे! ..............! - इस प्रकार विलाप करते हुए वे व्रजेश को घेर कर धराशायी हो गये।’ </center> तथा व्रजरानी? ओह! मूर्छा के लिये भी उनकी अपरिसीम वेदना का भार सर्वथा असह्य है। वे तो ह्नद के परिसर में आकर न जाने कितनी बार गिर चुकी हैं, पर उनको स्पर्श करते ही वेदना की ज्वाला मूर्छा स्वयं जलने लगती है छोड़कर भाग खड़ी होती है। इसीलिये व्रजरानी कुछ क्षण विलम्ब से भी आयीं। पर आकर अपने नीलमणि को उस स्थिति में देख लेने पर उनकी क्या दशा हुई- ओह! वाग्वादिनी में कहाँ सामर्थ्य है कि संकेत तक कर दें। और यही दशा उनकी अनुगामिनी उन समस्त पुरसुन्दरियों की हुई। हाँ, किसी के श्रीकृष्ण-रस-भावित, पर अत्यन्त आकुल प्राण व्रजरानी एवं व्रजसुन्दरियों की करुण-दशा की छाया की प्रतिच्छाया को किसी नगण्यतम अंश में इतना भर भले छू लें- ‘क्षण भर के लिये एक तुमुल आर्तनाद सर्वत्र गूँज उठता है और फिर एक अत्यन्त भयावह नीरवता छा जाती है।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (आनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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