श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
66. अपशकुन देखकर नन्द-यशोदा एवं बलराम जी का तथा अन्य व्रजवासियों का नन्द नन्दन के लिये चिन्तित हो एक साथ दौड़ पड़ना और श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के सहारे कालीदह पर जा पहुँचना और वहाँ का हृदय विदारक दृश्य देखकर मूर्च्छित हो गिर पड़ना
उनके साथ रोहिणी नन्दन श्रीबलराम भी हैं। अवश्य ही, उनके श्रीमुख पर क्लान्ति नहीं, व्यथा नहीं, चिन्ता की छाया तक नहीं; अपितु उनके अधरों पर तो स्फुट हास्य भरा है। क्यों न हो? श्रीरोहिणी, व्रजरानी, व्रजेश, व्रजपुर वासियों की दृष्टि में भले ही वे बलराम शिशु हों; पर वास्तव में हैं भगवान पुरुषोत्तम के द्वितीय व्यूह, मूल ‘संकर्षण’ ही तो। उन सर्वशक्तिमान सर्वविद्याधिपति से क्या छिपा है? अपने अनुज की समस्त योजनाओं से, उनके अनन्त अपरिसीम ऐश्वर्य से वे चिर परिचित हैं। उनके विषय में भय, विस्मय, चिन्ता के लिये अवसर ही कहाँ है? हाँ, जननी यशोदा एवं नन्द बाबा का म्लान सुख देख कर रोहिणी नन्दन शान्त स्थिर रह सकें, उनके कण्ठदेश में अपनी भुजाएँ डाल कर उनके प्राणों को शीतल न करें, यह अब तक नहीं हुआ था; किंतु आज अपने प्राण प्रिय मैया को, बाबा को, स्वजनों को एवं समस्त व्रजपुर वासियों को श्रीकृष्ण -वियोग की सम्भावना से अत्यधिक व्यथित व्याकुल देख कर भी वे कुछ नहीं बोले, केवल मृदु हँसी हँस कर रह गये। कौन जाने व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के अग्रज संकर्षण देव की अभि संधि को।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।16।16)
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