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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
9. शिशु श्रीकृष्ण का अन्नप्राशन-महोत्सव, कुबेर के द्वारा गोकुल में स्वर्ण वृष्ठि
जिस समय व्रजेन्द्र तीक्ष्ण, कटु, अम्ल, लवण रसों का कृष्णचन्द्र के अधरों से स्पर्श कराते हैं, उस समय वे अभिनव बाल्य माधुरी का प्रकाश करते हुए अपने होठ सिकोड़ने लगते हैं। ओह! जो अपने एक क्षुद्र अंश में स्थित अनन्त ब्रह्माण्ड को क्षण भर में चूर्ण-विचूर्ण कर विलीन कर लेते हैं, ऐसे अनन्त महाप्रलय महाभोजन के समय भी जिनमें विकृति नहीं आती, उनका कणिका मात्र तीक्ष्ण, कटु आदि रसों से मुख करुआना - मुख विकृत करना कितना आश्चर्यमय है, यह कितना मोहक लीला विलास है। व्रजेन्द्र को भी ऐसा प्रतीत हुआ कि ऐसे सुकोमलम पाटलदल सदृश अधरों पर तीक्ष्ण, कटुरस रखना अत्याचार है, महान क्रूरता, अत्यन्त नृशंसता है। इसलिये उन्होंने अतिशय शीघ्रता से जल लेकर श्रीकृष्ण के अधरों को पोंछ दिया, पोंछ कर व्रजरानी की गोद में उन्हें रख दिया।
व्रजरानी गोद में लेकर चाहती हैं कि इसे छोडूँ ही नहीं, हृदय से लगाये ही रहूँ। पर अन्य व्रजांगनाओं की व्याकुलता देख कर वे द्रवित हो जाती है। पास में खड़ी, यशोदानन्दन ने हृदय पर धारण करने के लिये अत्यन्त उत्कण्ठित एक गोपी की गोद में वे पुत्र को रख देती हैं। फिर तो क्रमशः गोद में ले-ले कर मुख चूम-चूम कर गोपसुन्दरियाँ कृतार्थ हो जाती हैं।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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