श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
65. श्रीकृष्ण के द्वारा कालिय ह्नद के नीचे तक उद्वेलित होने पर कालिय का क्रुद्ध होकर बाहर निकलना, श्रीकृष्ण को बार-बार कई अंगों में डसना और अन्त में उनके शरीर को सब ओर से वेष्टित कर लेना; यह देखकर तट पर खड़े हुए गोपों और गोप बालकों का मूर्च्छित होकर गिर पड़ना
अस्तु, अब कालिय को देखते ही बाल्य लीला बिहारी तो भाग चले- भय से नहीं, उसे और भी कुपित कर देने के लिये। बायें, दाहिने मुड़ते हुए हँस-हँस कर जल पीटते हुए वे भागे जा रहे हैं तथा उनके पीछे अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा कर कालिय दौड़ रहा है। पद-पद पर उन्हें छू लेने की सम्भावना नाग को हो जाती है, पर पुनः तिल मात्र की दूर बचा कर नीलसुन्दर बच निकलते हैं। भला, युग-युग के साधन श्रम से पूत हुए अपने समाधि-सिद्ध चित्त में अगणित योगीन्द्र-मुनीन्द्र भी क्षण भर को जितना साक्षात्कार कर लेने के लिये लालायित रहते हैं , उन व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्णचन्द्र को काट खाने के लिये कालिय उनके पीछे प्रत्यक्ष भाग जा रहा है- यह कितनी आश्चर्यमयी घटना है। बलिहारी है बाल्य लीला विहारी के इस कृपा दान की। और वह देखो, वहाँ उनके चरण-सरोज के स्पर्श का सौभाग्य भी उस नीच को मिल ही गया। उन अरुण चरण-सरोरुह में अपने प्राणों को अनन्त काल के लिये न्यौछावर कर देने के लिये नहीं, अपितु उसमें अपने विषमय दन्त चुभो देने के लिये। लीला-महाशक्ति की योजना भी कैसी विचित्र है। नीलसुन्दर हँसते हुए अपनी बंकिम चितवन से मुड़-मुड़ कर कालिय की ओर देखते हुए- मानों श्रान्त हो गये हों, इस प्रकार मन्द गति से संतरण करने लगते हैं और कालिय लपक कर उनके पाद-पल्लव में दंशन कर लेता है, विष उगल देता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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