श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
65. श्रीकृष्ण के द्वारा कालिय ह्नद के नीचे तक उद्वेलित होने पर कालिय का क्रुद्ध होकर बाहर निकलना, श्रीकृष्ण को बार-बार कई अंगों में डसना और अन्त में उनके शरीर को सब ओर से वेष्टित कर लेना; यह देखकर तट पर खड़े हुए गोपों और गोप बालकों का मूर्च्छित होकर गिर पड़ना
अचानक एक उठे हुए आवर्त ने निद्रित कालिय को स्पर्श किया- ऐसे प्रचण्ड वेग से कि उसे सर्वथा बाहर की ओर फेंक दे। और फिर इस झकझोर से जैसे ही उसकी कराल आँखें खुलीं कि वह अत्यन्त भयावह वज्रनाद-सा शब्द भी उसके कर्ण छिद्रों में पूरित हो गया। नेत्र तो उसके खुले थे ही एवं उसी पथ से जल ताड़न की ध्वनि भी प्रविष्ट हो रही थी। पर वह कुछ भी निर्णय न कर सका कि यह जलीय झंझावात क्यों, कैसे उत्थित हुआ। साथ ही विविध आशंकाओं से अभिभूत होकर वह उद्विग्न हो उठा। ‘गरुड़ तो नहीं आ गये? नहीं, वे नहीं आ सकते। सौभरि के शाप का वे अतिक्रमण कर सकें, यह सम्भव नहीं! हाँ, गरुड़ की अपेक्षा भी अत्यधिक पराक्रमशाली ही कोई यहाँ आने का साहस कर सकता है। पर वह है कौन?’- इस चिन्ता में कालिय के प्राण चञ्चल हो उठे। मन में रोष भी भरने लगा; क्योंकि वह स्पष्ट देख रहा है- ‘इस उद्वेलन में पड़कर सम्पूर्ण सर्पावास ही छिन्न-भिन्न जो होने जा रहा है। असह्य है यह। तथा क्षणभर का विलम्ब भी न जाने क्या परिणाम उपस्थित कर दे! इस प्रकार अधीर हो कर कालिय अपने आवास गर्त से चलकर आखिर बाहर निकल आया। ह्नद के ऊपर आकर उसने अपने फण विस्तारित कर लिये और तब उसकी कराल दृष्टि अपने प्रतिद्वन्द्वी पर पड़ी। फिर तो वह उस ओर ही लपक पड़ा- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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