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इसी समय कालिय ने करवट ले ली। फिर तो स्नेह विवश नाग बधुओं के हृदय का बाँध टूटने-सा लगा- ‘हाय रे! कैसी भीषण परिस्थिति में फँसता जा रहा है यह बालक! कैसे समझायें इस सौन्दर्य निधि हठीले सुकुमार शिशु को!’ वे संकेत करती हैं मन्द स्वर में बोलने के लिये, पर श्रीकृष्णचन्द्र और भी स्फुट कण्ठ से पुकारने लगते हैं ‘री! कंस को मारूँगा, मारूँगा .........।’ उत्तर सुनकर- सर्प बधुओं की आँखे सजल तो पहले थीं ही, उनमें अत्यधिक निराशा भर जाती है और वे अस्फुट अश्रु पूरित कण्ठ से नीलसुन्दर की ‘भवितव्यताजनित’ ऐसी बुद्धि को कोसने लगती हैं-
- कंस कौं मारिहौं धरनि निरबारिहौं, अमर उद्धारिहौं उरग-धरनी।
- सूर-प्रभु के बचन सुनत उरगिनि कह्यौ, जाहि अब क्यौं न, मति भई मरनी।।
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