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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
64. श्रीकृष्ण का कालिय के श्यानागार में प्रवेश और नाग वधुओं से उसे जगाने की प्रेरणा करना; नाग पत्नियों का बाल कृष्ण के लिये भयभीत होना और उन्हें हटाने की चेष्टा करना
सभी इस समय तो सर्वथा भूल गये- ‘नृशंस कंस का कोई दूता आया था, कमल भेजने का आदेश है।’ और तो क्या, स्वयं अनन्तैश्वर्य निकेतन श्रीकृष्णचन्द्र ने भी पहले की भाँति मुग्धता की चादर औढ़ ली। सर्वज्ञ सर्ववित प्रभु भी इसे सर्वथा भूले-से होकर गो संचारण के लिये वन में पधार गये। इस प्रकार लीला महाशक्ति की योजना के अनुसार व्रजेन्द्र नन्दन के अनादि-अन्त विहीन चित्रपट में यह दृश्य उद्भासित हुआ और मानो ऐसा कुछ भी हुआ ही नहीं- इस रूप से विस्मृति का एक घन आवरण इस पर डाल दिया गया। अथवा ऐसे कहें- लीला प्रवाह अनिर्देश्य-बिन्दु से प्रसरित होकर दो भागों में विभाजित हो गया। एक स्रोत मधुपुरी के कंस प्रासाद की ओर से होकर आया, अन्य नीलसुन्दर के स्वप्न को छू कर व्रजेश्वरी के वात्सल्य सिन्धु में एक क्षीण कम्पन का सृजन कर अन्तर्हित हो गया- सदा के लिये नहीं, अपितु समय पर व्रज-दम्पति की वात्सल्य मन्थन-लीला में उस वेदना के मन्थन दण्ड को अत्यधिक गतिशील बना देने के उद्देश्य से व्यक्त होने के लिये। ऐसे ही मधुपुरी की ओर से प्रवाहित स्रोत भी कुछ देर तो प्रसरित होता रहा, पर सहसा यह भी अन्तर्हित हो गया। उसी की भाँति यह भी उचित अवसर पर पुनः व्यक्त अवश्य होगा; किंतु यह होगा व्रजवासियों को, व्रजेन्द्र दम्पति को परम उल्लास में भर देने के लिये और उससे पूर्व नाग वधुओं के हृदय में करुण-भाव का संचार करने के लिये यह अभी-अभी यहाँ पुनः व्यक्त हो रहा है। श्रीकृष्णचन्द्र इसीलिये तो उस लीला स्रोत से परिचालित- भावित होकर ही तो नाग वधुओं से कह बैठे हैं- ‘री! कंस ने मुझे कालिय के दर्शन के लिये ही तो भेजा है! तुम इसे जगा दो!’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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