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व्रजेश उस समय तोरण के समीप अवस्थित थे। अंशुमाली की किरणें व्रजपुर को उद्भासित कर रही थीं। प्रातः का शीतल-मन्द-सुगन्ध समीर द्रुमवल्लरियों की ओट से झर-झर कर व्रजेश को स्पर्श कर रहा था, किंतु उनकी आँखों के आगे तो अँधेरा छा गया! अपने नीलमणि की अनिष्टाशंका से वे काँप उठे। शूल की-सी वेदना होने लगी। शरीर दुःख भार से जल-सा उठा। दूत तो चला गया और व्रजेश किसी से कुछ भी न कहकर अपने शयनागार में व्रजरानी की शय्या पर कटे वृक्ष की भाँति आकर गिर पड़े। परिस्थिति की गम्भीरता का अनुमान कर प्रमुख गोप आ पहुँचे। व्रजेश्वर अत्यन्त विह्वल होकर कहने लगे-
- आपु चढ़ै ब्रजऊपर काल।
- कहाँ निकसि जैयै, को राखै, नंद कहत बेहाल।।
- मोहि नहीं जिय कौ डर नैकहु, दोउ सुत कौं डर पाउँ।
- गाउँ तजौं, कहुँ जाउँ निकसि लै, इनही काज पराउँ।।
- अब उबार नहिं दीसत कतहूँ, सरन राखि को लेइ।
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