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- सर्पह्रद: पुरुषसारनिपातवेगसंक्षोभितोरगविषोच्छ्वसिताम्बुराशि:।
- पर्यक् प्लुतो विषकषायविभीषणोर्मिधार्वन् धनु:शतमंतंत्बलस्य किं तत्॥[1]
- बल अनंत है जासु, त्रिभुवन पति भगवंत हरि।
- अचरज अहै न तासु, सत धनु जल गौ चारि दिसि।।
- बर बारन ज्यौं जल में धसरै।
- सत-सत धनु चहुँ दिसि पय पसरै।।
अस्तु, क्षण भी न लगा, श्रीकृष्णचन्द्र कालिय के उस शयन गृह में जा पहुँचे। नाग वधुओं की दृष्टि भी उनके श्यामल कोमल श्री अंगों परजा पड़ी! फिर तो ऐसे सौन्दर्य निधि शिशु को देखकर वे कुछ क्षणों के लिये हतप्रभ हो गयीं। सुन्दरता तो उन वधुओं के अंगों से भी झरती थी, अपने रूप का उन्हें गर्व भी था, खर्बालाएँ अपनी तुलना में उन्हें हेय प्रतीत होती थीं; किंतु नीलसुन्दर के विश्वविमोहन सौन्दर्य के दर्शन तो उन्हें आज ही हुए हैं! अपलक नेत्रों से वे त्रैलोक्य-मनोरम रूप को देख रही थीं, किंतु देखते-देखते ही सहसा उनके प्राण स्पन्दित होने लग गये- ‘हाय रे! इस बालक का भविष्य! क्रूर पति के सम्पर्क में इस अप्रतिम सुन्दर शिशु की क्या दशा होगी?’-
- अति कोमल तनु धरयौ कन्हाई।
- गए तहाँ, जहँ काली सोवत, उरग-नारि देखत अकुलाईं।।
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