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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
63. श्रीकृष्ण का कालिय नाग पर शासन करने के उद्देश्य से कालिय ह्नद के तट पर अवस्थित कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर वहाँ से कालिय ह्नद में कूद पड़ना
श्रीकृष्णचन्द्र इतना कह लेने के अनन्तर अपने सखाओं की ओर देखने लगे। प्रत्येक शिशु ने ही देखा, ठीक ऐसे ही अनुभूति उसे हुई- ‘मेरा कोटि प्राण प्रिय कन्नू केवल मेरी ही आँखों में अपनी आँखें मिलाकर मेरी अनुमति चाह रहा है!’ सचमुच मानों स्नेह की शत-सहस्र स्रोतनियाँ नीलसुन्दर के इन दृगों से एक साथ प्रसरित हो रही हों, ऐसी स्नेहपूरित दृष्टि से वे उन शिशुओं की सम्मति माँग रहे हैं। किंतु उन बालकों का हृदय- न जाने क्यों? आज भर आया। क्षणभर पूर्व का वह अप्रतिम उल्लास भी सहसा, न जाने कैसे, सर्वथा प्रशमित हो गया! वे कुछ बोलने चले, पर इतने में तो उनके नेत्र भी छल-छल करने लगे? व्रजेन्द्र नन्दन ने उन्हें दूर हटकर गोचारण करने की बात कह दी। इस हेतु से यह बात हुई क्या? नहीं-नहीं, यह तो कितनी बार हो चुका है। आज तो बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के ही उनके हृदय का बाँध ही टूटा-सा जा रहा था। पर, इधर नीलसुन्दर को भी अब अत्यधिक त्वरा है। यह कहना सम्भव नहीं कि उन शिशुओं ने उन्हें मूक सम्मति दी या असम्मति प्रकट की; क्योंकि सहसा व्रजेन्द्र नन्दन उनकी ओर देखकर स्थगित कर कदम्ब तरु की ओर देखने लगे। साथ ही उनके अधर पल्लव भी उनकी शुभ्र दशन कान्ति से उद्भासित हो उठे तथा सर्वत्र एक विचित्र मनोहर हास्य गूँज उठा और फिर नादित होने लगी उनकी यह रहस्यपूर्ण अभय वाणी ‘भैयाओ! डरना मत, डरना मत; मेरे लिये शोक मत करना, भला! अच्छा, दूर मत जाओ। यहीं- इस स्थान पर ही गायों को सँभालते की दृष्टि से स्थित रहना।’
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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