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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
63. श्रीकृष्ण का कालिय नाग पर शासन करने के उद्देश्य से कालिय ह्नद के तट पर अवस्थित कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर वहाँ से कालिय ह्नद में कूद पड़ना
‘अरै भैयाओ! देखो तो सही, यहाँ चमचम करती हुई यमुना के वक्षःस्थल से सटे हुए ह्नद में एक बहुत बड़ा सर्प रहता है हो! महादुष्ट है वह। उसका नाम कालिय है। इतना ही नहीं, वह जल स्तम्भन विद्या जानता है। उस विद्या के प्रवाह से उसने जल में ही स्थान बना लिया और फिर इस ह्नद में गृह का निर्माण कर निवास करने लगा है। और सुनो, इसकी फुफकार इतनी दूषित है, इसकी फुफकार से ऐसी एवं इतनी अधिक भयंकर विष ज्वाला निकलती है कि चारों ओर की भूमि झुलस गयी, जल गयी है। सचमुच, सब ओर की पृथ्वी जली हुई प्रतीत हो रही है। और यह तो अपनी आँखों से अभी-अभी प्रत्यक्ष देख लो, ऊपर ऊँचे आकाश में उड़ते हुए पक्षी सब-के-सब इस ह्रद में गिर पड़े। हाय! इन पक्षियों के प्राण इस सर्प के भय से इन्हें छोड़कर ऐसे उड़ गये मानों इनका इनसे मेल है ही नहीं, परस्पर विरोध हो गया है सब-के-सब पक्षी बेचारे मर ही गये। इनके प्राण (तुम्हारी भाँति) लौटने के नहीं। किंतु भैयाओ! अरे देखो, यह अकेला कदम्ब ही ज्यों-का-त्यों बना है हो! इस सर्प की कालकूट-ज्वाला के सम्पर्क में भी यह अपने आपको धारण किये हुए है- यही नहीं, अत्यन्त सुन्दर पल्लव आदि से विभूषित रहकर अतिशय चमक रहा है। इसका कारण बताऊँ? अच्छा सुनो, गरुड़ जब अमृत लिये जा रहे थे, उस समय इस पर भी अमृत के छींटे पड़ गये थे। और सुनो, भैयाओ! मुझे स्पष्ट ही ऐसा लगता है कि उसी कारण से आज भी इस वृक्ष के ऊपर के कोटर में वह विशुद्ध अमृत सुरक्षित पड़ा है। मेरी तो इच्छा है कि साहसपूर्वक मैं इस कदम्ब पर चढ़ जाऊँ और देखूँ तो सही कि वहाँ उस कोटर में सचमुच अमृत है या नहीं। हाँ, तुम सब यहाँ से किंचित् दूर हटकर गोचारण करते हुए बिचरो!’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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