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अस्तु, श्रीकृष्णचन्द्र के अरुणिम अधरों पर नित्य विराजित स्मित की आभा किंचित बदली; वे तनिक गम्भीर-से दीखे! किंतु पुनः निमेष गिरते-न-गिरते उनके नेत्र पहले से भी अधिक चञ्चल हो उठे। दक्षिण भुजा कालियह्रद की ओर केन्द्रित हो गयी तथा तर्जनी से कालिय नाग के उस आवास की ओर संकेत करते हुए नीलसुन्दर ने कहना प्रारम्भ किया। स्वर में एक अभिनव गम्भीरता का पुट अवश्य है, पर बाल्यावेश की सरलता, वीणा विनिन्दित स्वर की सरसता भी निरन्तर क्षर ही रही है और वे मानो एक श्वास में ही इतनी बातें कह गये-
- अहो वयस्याः! पश्यथ अत्रोदकस्तम्भविद्याकृतावकाशप्रकाशमानह्रदिनीह्रदस्थितस्वसदने कालियाख्यमन्द दंदशूकस्तिष्ठति। तेन च दुष्टनिष्ठयतया सर्व एवाखर्बविषज्वालया ज्वलिताः पय्र्यग्देशा दृश्यन्ते। उपय्र्यप्युत्पतिताः पतत्रिणश्चात्र पतिता इत्यात्मनेत्राभ्यां प्रतीयताम्। येभ्यस्तु प्राणा जगत प्राणाशनभयतः सद्य एव विप्रतिपद्येव स्वयमुत्पतन्तः कदापि न न्यवर्त्तन्त। सोऽयं पुनर्गरुत-मत्कृता-मृतसेक एक एव कालकूटज्वालयापि कृतालम्बः कदम्बः सुललितदलादितया लालसीति। तस्मादस्योपरिगकोटरपिठरे स्फुटं तदनवद्यममृतमद्यापि विद्यत इति प्रसह्याहमारुह्य पश्यानि। भवन्तस्तु गाः किंचिद्दूरचरतया चारयन्तश्चरन्तु।[1]
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